Sunday, October 11, 2009

आँखों में जल रहा है बुझता नहीं धुआं,
उठाता तो है घटा-सा, बरसता नहीं धुआं..

पलकों को ढापने से बी रुकता नहीं धुआं,
कितनी उ.न्देली ऑंखें बुझता नहीं धुआं..

आँखों से आंसुओं के मरासिम पुराने हैं,
महमा.न ये घर में आये तो चुभता नहीं धुआं..

चूल्हे नहीं जलाये या बस्ती ही जल गयी,
कुछ रोज़ हो गए हैं अब उठता नहीं धुआं..

चिंगारी एक अटक सी गयी मेरे सीने,
थोडा सा आ के फूँक दो उड़ता नहीं धुआं....

-गुलज़ार

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